भारत में पुनर्जागरण के अग्रदूत राजा राममोहन राय की आज जयंती है। जिस वक्त अबोध बच्चों की शादी, विधवा का पति की चिता पर चढ़कर सती हो जाना और पर्दा करना समाज में सामान्य चलन था, उस वक्त राजा राममोहन राय ने धर्म के नाम पर चल रही इन अमानवीय प्रथाओं को खत्म करने के लिए अथक मेहनत की। चाहे बचपन में विवाह हो या अकाल मौत के लिए धकेला जाना हो, स्त्री को केवल इसलिए ये त्रासदियां भुगतनी पड़ती थीं, क्योंकि वो पुरुष सत्तात्मक समाज में जन्मी। राजा राममोहन राय ने सामाजिक कुरीतियों के व्यापक असर और महिलाओं की पीड़ा को समझा और उसके खिलाफ आवाज़ उठाई। देश के अलग-अलग हिस्से में कई और लोगों ने इसी तरह महिला उत्थान के कार्य किए। देश आजाद हुआ तो संविधान के जरिए महिलाओं के अधिकार रेखांकित किए गए। समय के साथ जागरुकता आई तो महिलाओं के हक में कई कानून बने, कई कानूनों में सुधार किए गए, ताकि स्त्री-पुरुष बराबरी की आदर्श स्थिति लाई जा सके। मगर आज जो हालात हैं, उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि देश को एक और पुनर्जागरण की जरूरत है।
कलकत्ता हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति अभिजीत गंगोपाध्याय ने राजा राम मोहन राय पर रविवार को आयोजित एक संगोष्ठी में कहा कि महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए देश में कई कानूनों को लागू किए जाने के बावजूद वो अक्सर उन कानूनों का लाभ उठाने में असमर्थ होती हैं। जब न्यायमूर्ति गंगोपाध्याय ये बात कह रहे थे, तब कोलकाता से बहुत दूर रोहतक के महम में खाप पंचायत हो रही थी। और एक खाप पंचायत दिल्ली के जंतर-मंतर पर हो रही थी। दोनों पंचायतें महिला पहलवानों को इंसाफ दिलाने के लिए हुईं, क्योंकि देश की सबसे बड़ी पंचायत यानी संसद में इस पर मौन पसरा हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी इन दिनों जापान में हैं। रूस से युद्धरत यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की से मुलाकात में उन्होंने कहा कि बातचीत से किसी भी समस्या का हल निकाला जाना चाहिए। श्री मोदी ने भारत की नीति-रीति के अनुरूप ही विचार रखे। लेकिन इस विचार को वे देश में अमल में क्यों नहीं ला रहे हैं, यह समझ से परे है। पिछले महीने की 23 तारीख से जंतर-मंतर पर पहलवानों का धरना चल रहा है।
यानी एक महीना होने में एक ही दिन बच गया है। बीते अनुभव यही बता रहे हैं कि मोदी सरकार में कोई भी धरना-प्रदर्शन लंबा ही चलता है, क्योंकि इंसाफ की मांग करने वालों का चीखते-चीखते गला सूख जाता है, मगर सरकार के कानों तक आवाज पहुंचती ही नहीं है। शाहीन बाग का आंदोलन, किसानों का आंदोलन, या मोदी सरकार के गठन के फौरन बाद 2015 में हुआ एफटीआईआई के छात्रों का आंदोलन हो, सब लंबे खिंचे क्योंकि संवाद का अभाव था। इसलिए पहलवानों का आंदोलन कितना लंबा खिंचेगा, कहा नहीं जा सकता।
कितनी हैरानी की बात है कि देश के नामी-गिरामी पहलवान यौन शोषण के गंभीर आरोप लगा रहे हैं, लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही। दिल्ली पुलिस ने आरोपी बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ एफआईआर ले-दे कर दर्ज की है, जिसमें पॉक्सो के तहत भी मामला दर्ज हुआ है। लेकिन आरोपी पर कोई कानूनी कार्रवाई अब तक नहीं हुई है। बल्कि बृजभूषण शरण सिंह 5 जून को अयोध्या में 'जन चेतना महारैली' का आयोजन करने जा रहे हैं। रैली का असल उद्देश्य क्या है, यह पता नहीं। लेकिन माना जा रहा है कि इस आयोजन के बहाने भाजपा सांसद हिंदू धार्मिक नेताओं की मदद से लोगों को अपने पक्ष में लामबंद करना चाहते हैं, ताकि सरकार उन पर कार्रवाई करने से बचे। बृजभूषण शरण सिंह के राजनैतिक महत्व को भाजपा जानती है, शायद इसलिए कोई कड़ा कदम अब तक नहीं उठाया गया है। भाजपा सांसद अपने ऊपर लगे आरोपों को खारिज करते आए हैं और 19 मई को उन्होंने फिर कहा कि सारा मामला गुड टच और बैड टच का है। कोई भी ये बताए कि कहां हुआ, किसके साथ हुआ, अगर एक भी मामला साबित हुआ तो मैं फांसी पर लटक जाऊंगा।
सांसद महोदय को यह पता होना चाहिए कि मामला साबित होने का सही स्थान तो अदालत है, लेकिन वहां तक तो बृजभूषण शरण सिंह तभी पहुंचेंगे, जब वे खुद जाएंगे या उन्हें वहां तक आने के लिए बाध्य किया जाएगा। फिर सजा होनी है या नहीं, यह तय करना भी माननीय न्यायाधीशों का कार्य है। देश में न्याय अगर किसी सांसद के शक्ति प्रदर्शन से या पंचायतों से होने लगे तो फिर कानून व्यवस्था किस दुर्दशा को प्राप्त होंगे, ये कल्पना ही कठिन है। महिला पहलवानों के हक में खाप पंचायतों ने सरकार को चेतावनी दी है कि इस निष्क्रियता का परिणाम अच्छा नहीं होगा। मुमकिन है राजस्थान चुनाव और अगले साल होने वाले चुनावों को देखते हुए सरकार कोई कदम उठा ले। लेकिन इसमें इंसाफ की जगह राजनैतिक स्वार्थ की भावना हावी रहेगी। सरकार अगर जनवरी से ही इस बारे में कोई पहल करती तो माना जा सकता था कि उसका इरादा इंसाफ करने का है, अब तो हर कदम भरपाई ही लगेगा, बशर्ते कोई कदम सरकार उठाए।
महिला पहलवानों के लिए तो खाप पंचायतें आगे आ गईं, लेकिन लगभग हर क्षेत्र में इसी तरह महिलाएं शोषण का शिकार होती हैं। अभी तारक मेहता का उल्टा चश्मा शो की कुछ महिला कलाकारों ने शो के निर्माताओं पर मानसिक शोषण के गंभीर आरोप लगाए हैं। एक कलाकार ने कहा कि शो का सेट पुरुषवादी है, यहां पुरुष कलाकारों को अधिक पारिश्रमिक मिलता है, वे अपना काम करके जल्दी भी जा सकते हैं, लेकिन महिला कलाकारों को इंतजार कराया जाता है। ग्लैमर की दुनिया से लेकर अखाड़े तक महिलाओं की व्यथा एक जैसी ही है। क्या हालात सुधारने के लिए हमें फिर कोई राजा राममोहन राय जैसी शख्सियत चाहिए या देश के कानून इसके लिए पर्याप्त होंगे, यह विचारणीय है।